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विकास के इस चरण मे युवा पीढी ने जिन नैतिक मूल्यों से किनारा करना शुरु किया है। उससे भारतीय संस्कृति की गरिमा कम होती जा रही है जिन संस्कारों व संस्कृति के कारण हम विश्व मे जाने जाते हैं। जिस भारत में लोग रिश्ते निभाने एवंम मूल्यों को मानने में अपने स्वार्थ की बलि दे देते है्। जहां नदियों को माँ माना जाता हो, जहां पति को परमेश्वर का दर्जा दिया जाता हो,उसी भारत मे आज विवाह जैसी संस्था को हमारी युवा पीढी अस्वीकार करने लगी है, और लिव इन जैसी रिश्ते को स्वीकार करने लगी है ।उसके पीछे तर्क ये है, कि इसमे कोई बन्धन नही है । जब तक मन मिले तब तक रहो वरना अपना-अपना रास्ता नापो।आज हम अधिकार तो चाहते हैं। लेकिन कर्त्तव्य नही निभाना चाहते हैं। रिश्ते तो चाहते हैं।
परतुं जिम्मेदारियाँ नहीं चाहते इसलिए हम पश्चिमीसभ्यता के अधांनुकरण के फलस्वरूप लिव इन जैसे रिश्ते को स्वीकारने लगे हैं।
कुछ लोग तो तर्क देते है कि यह प्रथा भारतीय समाज में प्राचीन समय से रैखल के स्वरूप में व्याप्त है पर शायद वो यह भूल जाते हैं, कि दोनों मे कितना अन्तर है। साधारण भाषा में रखैल को रक्खा जाता था जिसमे पुरुष की इच्छा सर्वोपरि होती थी स्त्री मजबूरी बस या जर्बजस्ती मे रहती थी । समाज ऐसे सम्बन्ध को स्वीकार नही करता था और उसे पत्नी की हैंसियत भी नही मिलती थी। कोई भी स्त्री स्वेच्छा से किसी की रखैल बनना स्वीकार नही करती थी। दूसरे तरफ लिव इन मे स्त्री स्वेच्छा से रहना स्वीकार करती है जिसे वह विचारों की आधुनिकता और स्वतन्त्रता कहती है। युवा पीढी भट्क गयी है, या नही ये तो हम नही कह सकते परन्तु जो भी इन सम्बन्धों को सहमति देता है, उसकी सोच अवश्य भारतीय संस्कृत के विपरीत है। यह आजादी नही उच्श्रंखलता की परिचायक है। एक दूजे को जानना और प्रेम करना किसी रूप से बुरा नही है।जिसके साथ जीवन बिताना हो उसके बारे मे जानकारी करना उसे पसन्द ना पसन्द करना तो स्त्री पुरूष दोनों का आधिकार व स्वतंत्रता माना जा सकता है। लेकिन ए कैसी मांग है, जब तक मन करे तेरे साथ और नही पटे तो दूसरे के साथ फिर न पटे तो तीसरे के साथ। वाह क्या साथ है, क्या सोच है, दिलों ने भी अपनी नैतिकतायें बदल ली हैं अब एक ही जनम मे न जाने कितनों के लिए धड़केगा ए, बेचारा तू नही तो ,वो सही, वो नही तो, कोई और सही,वास्तव में हम विकसित होते जा रहें हैं रिश्तो के मामले में एक तरफ लिव इन, इससे भी एक कदम और आगे गेय भी कानूनी मान्यता मांग रहें हैं ।विचारों व सोच की एकदम नयी दुनिया है, जिसमें कोई बन्धन नही है। यहाँ प्रेम की आड़ में वासनात्रप्ती की खुले आम स्वीकारोक्ती है। जहां पति-पत्नी के रिश्ते से विभिन्न रिश्तों का स्रृजन होता है, वहीं लिव इन रिश्ते अपना ही स्थायित्व नही जानते। जहां वैवाहिक पति-पत्नी के रिश्तों की अध्यात्मिक एवंम धार्मिक मान्यता है,वहीं लिव इन रिश्तों को स्वंय की भी मान्यता तभी तक है,जब तक एक दूसरे के अहम नही ट्कराते क्योंकि वहां प्रेम का बन्धन नही है विवाह की मजबूत डोर भी नही है। जिसे तोड़ने में पुरूष को भी बहुत परेशानी होती है। और सबसे आवश्यक कर्त्वय और अधिकार ही एक दूसरे के प्रति नही है। और जहां इन सब बातों का अभाव हो वहां स्वेच्छाचारिता के अतिरिक्त कुछ भी नही है। मेरी राय में यह भौतिकवादी उच्श्रंखल सोच का परिणाम है, व आधुनिक विचारों के नाम पर सांस्कृतिक बद्लाव नही वरन भट्काव है। मै तो कहुंगी यदि हमारी युवा पीढी इसे प्रेम कह्ती है, तो वह फिर प्रेम का अर्थ ही नही जानती प्रेम तो वह है जो जीवन भर किया जाता है प्रेम असीम है, वासना से परे है।उसमें साथ की कामना तो है पर साथ ही समर्पण व त्याग की भी भावना है, और भारत में ऐसे ही अमर प्रेम की ढेरों कहानियाँ है।
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