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गजल

जनदर्पण
जनदर्पण
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कस्बा, शहर शहर, महानगर हो गया।
आदमी एक दूसरे से यूं बेखबर हो गया॥

पड़ोसी के हाल हम तुमसे कैसे करे बयां।
हमें हाले दिल कहे सुने, वरस हो गया॥

अर्थ की जरुरतें इन्सान की इतनी बढी।
उससे हर रिश्ते हर भरोसे का कत्ल हो गया॥

धर्म की आड़ ले अधर्म वो है कर रहा।
इन्सान क्यों शैतान से भी बदतर हो गया॥

अखबार उठाओ तो कांपते है हांथ अब।
कत्लेआम,लूट्पाट ब्लात्कार, खौफनाक? मंजर हो गया॥

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