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उत्तर प्रदेश राज्य का बंटवारा वर्तमान सरकार का चुनावी हथकंडा है या वास्तव में विकास की आशा मे किया जाने वाला एक प्रयोग। हमारे नेताओं ने भी अंग्रेजों की कूटनीति अपना ली है- बांटो व राज करो। उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य का जो कि देश के सियासी गणित का अहम हिस्सा हो उसे चार हिस्से में बांट कर सूबे की सरकार अपना या जनता किसका भला करना चाहती है, यह तो समय बतायेगा। दो बार सूबे की मुखिया बन कर वह जनता का अपेक्षित भला नही कर पायीं, जब कि जनता ने उनको इस बार न केवल दो तिहाई बहुमत से जिताया बल्कि उनके नेतृत्व मे प्रगाढ़ आस्था ब्यक्त करके विश्व के राजनीतिक पटल पर एक योग्य प्रशासक की पहचान दिलवाई।
उत्तर प्रदेश विकास के मामले में देश के कई राज्यों से काफी पीछे है, चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो, स्वास्थ का या सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन का। यदि बँटवारे से कोई समस्या हल होती तो बिहार से अलग हुआ झारखन्ड खनिज सम्पदा से समृ्ध्द होते हुये भी विकास के मामले मे बिहार से पिछ्ड़ा न होता। कौडा जैसा मुखिया पाकर भ्रष्टाचार में इस तरह उलझा कि वहां की जनता को बँटवारा और विकास का फर्क समझ मे आ गया होगा। विकास तो सरकारों की नेक नियति व जनहित के लिये किये गये कार्यों पर निर्भर करता है न कि बँटवारे पर, अगर आज की तरह हमारे देश के नेता आजादी के समय मे होते तो लौह पुरूष सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे नेता राज्यों को जोड़ने मे कामयाब न हो पाते।
अगर नेताओं की नियति साफ हो और वह प्रदेश को सम-दृ्ष्टि से देखें तथा विकास की योजनाओं का जनहित मे कार्य करें तो शायद बँटवारे की जरूरत ही नही पड़ेगी हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे राजनेताओं के पास देशवासियों को जोड़ने जैसी नीतियों का अकाल रहता है परन्तु अपने स्वार्थ के लिये वह देश हित व जनहित भूलकर सदा क्षेत्रवाद को बढावा देते हैं प्रान्तो के टुकड़े करने की सोचते हैं और जनता को विकास का झुनझुना पकड़ाना चाहते हैं।
हमारे देश में आज ऐसे ही कितने मुद्दे हैं जिसे भुना करे ए नेता हमें कभी भाषा के नाम पर कभी प्रान्त के नाम पर कभी जाति के नाम पर कभी मजहब के नाम पर बाँटते रहते हैं। और अब एक नया खेल विकास के नाम पर भी ए हमें बाँटने को तैयार हैं।
जितने सूबे उतने मुखिया उतनी सरकारें उतनी लूट आज नेता बस लूट का पर्याय बन गये हैं लोक तन्त्र है परन्तु उसमें से लोक नदारद हो गया है। भ्रष्टाचार सभी विभागों मे जड़े जमा चुका है लूट हमारी व्यवस्था का अंग बन चुका है इन्सान अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिये के सारी नैतिकता को त्यागने को तैयार है। कंस और रावण शकुनी दुर्योधन दु:शासन की बाढ सी आ गयी है। कहीं बाँटते – बाँटते हम अपना अस्तित्व ही न खो दें और आने वाली पीढी को एकता का मतलब ही न सिखा पायें, इसलिये चिंतन की महती आवश्यकता है।
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