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एक चेहरे पर कैइ चेहरा लगाया है आदमी।

जनदर्पण
जनदर्पण
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एक चेहरे पर
कई चेहरा लगाया है, आदमी
भीड़ है चारों तरफ
फिर भी अकेंला है आदमी
रिश्तों के मेले हैं
पग—पग झमेलें हैं
संग चलने के दावे हैं
पर कितने ही सफर में
अकेंला है आदमी,
जिन्दगी किसी की है,
लेता है कोई फैंसला।
दिल जोड़ते है लोग यहां
फिर क्यों दिलों में फांसला।
जीवन सफर है, और हम सफर भी
पर मन के रणक्षेत्र में
भावों के कितने युद्ध में
लड़ता अकेंला है, आदमी।

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