जनदर्पण
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पूस की ठिठुरन
भाष्कर की बाट तके दिन
भोर अलसायी सी
उनीदीं अखिंया लिये
धुन्ध का दुशाला ओढे
कँपकँपाती सी चले
सकुंचायी जैसे नवेली दुलहिन
अनमने से वृ्क्षों ने
किये ओस स्नान
वन के वाशिन्दे भी
कापंते अधरों से
कर रहे प्रात गान
गरीबी का ओढना बन
दिवाकर दरस दो बदली बिन
मनेगी कैसे सक्रान्ती
फैलाओगे गर न कान्ती
अवनि पर आ विराजो
रश्मी रथ पर हो सवार
अपने तेज पुन्ज से
करो पशु प्राणियों का उपकार
सांझ को निगलता कोहरे का जिन्न्।
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