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भारतीय राजनीति में जातिवाद ( “Contest”)

जनदर्पण
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सदियों से राजनीति में जाति का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है।भारतीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो राजनीतिक पार्टियों ने जाति को एक मुद्दा बनाकर अपने-अपने हित साधे हैं। देश में 1931 जनगणना से सम्बन्धित अँग्रेज कमिश्नर मिस्टर हट्ट्न ने लिखा है, सही –सही जाति आधारित जनगणना असम्भव है।
हमारे विशाल देश मे लगभग छ हजार जातियां होगीं उनकी भी उप जातियां होगीं जिनकी संख्या हजारों में होगी। अत; उनकी वैज्ञानिक जन गणना सम्भव नही है।वर्तमान चुनाव 2012 में भी जाति एक अहम मुद्दा बनकर उभरा है, जिसे सभी राजनैतिक पार्टियों ने अपने दलों में टिकट बाँटते समय प्रत्याशी तय करने में ध्यान रक्खा है। क्षेत्रवाद ने जातिवाद को बढाने में अहम भूमिका निभाई , जिसके आधार पर विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों का प्रादुर्भाव हुआ और विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने जातीय समीकरण के आधार पर जाति विशेष की हितैषी बनकर भारतीय राजनीति मे अपनी पहचान बनाने मे न केवल कामयाब हुई वरन सत्ता भी प्राप्त करके राष्ट्रीय पार्टियों को भी जाति वाद के फार्मूले पर राजनीति करने के लिये आकर्षित किया। राजनीति के तहत देश में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के कद्दावर नेता तक देश मे जातीय जनगणना को अपना समर्थन दे रहे थे। शायद उन्हे पता नही है कि ऐसा कर वह देश में जातिवाद की अमरबेल बना देना चाहते हैं ।
देश की राष्ट्रीय एकता को खन्डित करने के लिए अंग्रेजों ने 1871 में जो जातीय जनगणना का विष रूपी अंकुर हमारी राजनैतिक धरा पर बोया था । उसे हमारी राजनैतिक पार्टियां अपने वोट बैंक के लिये राजनैतिक तुष्टीकरण के खाद पानी से सिंचित करती आ रही है। यही कारण है जब एक आम मतदाता चुनाव मे मत डालने निकलता है तो उसके मन मस्तिष्क पर उस प्रत्याशी की छवि और चरित्र से ज्यादा उसकी जाति भारी पड़ जाती है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने एक विशाल संविधान की रचना की है, जिसमें अनुच्छेद 16 (4) में पिछड़ें ‘वर्गों’ के ‘नागरिकों’ को विशेष सुविधा देने की बात कही है । न कि जाति के आधार पर संविधान भी मजहबी आधार पर आरक्षण की मनाही करता है । इसका मतलब यह है हमारे संविधान के रचनाकारों की भी ऐसी कोई मंशा नही थी। बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर जी ने ‘जाति का समूल नाश’ नामक पुस्तक लिखकर जातिवाद पर अपने विचारधारा को प्रस्तुत किया। समाजवाद के जनक ‘लोहिया’ जी ने भी ‘जाति तोड़ो’ का नारा दिया । इन महापुरुषों के आदर्शों के सहारे राजनीति चमकाने वाले हमारे नेता जातिवाद की राजनीति करके जहाँ एक ओर भारत मे अनेकता में एकता की अन्तर्राष्ट्रीय पहचान को क्षति पहुँचा रहे हैं वहीँ दूसरी ओर इन महान विचारकों के महान आर्दशों का भी माखौल उड़ा रहे हैं।
हम इक्कीसवीं सदी के भारत में रह रहे है। पहले की तुलना मे समाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो जाति का महत्व थोड़ा कम अवश्य हुआ है। परन्तु राजनीति के धरातल में इसकी सत्यता आंकी जाय तो यह देश का हर नागरिक स्वीकार करेगा, कि जातिवाद का मुद्दा सभी राजनैतिक पार्टियां सुलगाये रखना चाहती हैं क्यों कि इसे समय –समय पर थोड़ी सी राजनैतिक हवा देकर आग लगायी जा सकती है और अपना राज नैतिक उल्लू साधा जा सकता है।
आज हमारा भारत विकासशील देशों मे सर्वोच्चता के स्थान पर पहुंच कर विकसित राष्ट्र बनने की देहलीज पर खड़ा है। ऐसे में भारतीय राजिनीति में इस प्रकार जातिवाद की जो अवधारणा अपनी जड़ें जमा रही है उसके दूरगामी परिणाम स्वरूप कहीं ऐसा न हो, कि भारतीय समाज जातीय संघर्ष में जूझने लगे और भारत की एकता व अखन्डता के समक्ष सकंट उत्पन्न हो जाय्।

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