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अधिकार चाहतें हैं सभी, दायित्वों से मुँह मोड़ कर

जनदर्पण
जनदर्पण
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अधिकार चाहतें हैं, सभी

दायित्वों  से, मुँह  मोड़ कर

उसने देना सीखा ही नही,

बस मांगना  छोड़कर

बस मे हो, उसके अगर

अपनी रौशनी के लिये

औरों की झोंपड़ियॉ फूंक दे

अपना आशियां छोड़कर

तड़प रही थी एक जिन्दगी

तमाशयी बन थे, सब खडे

टूट गयी साँसे उसकी

बेदर्द  जहाँ को छोडकर

अर्थ के इस दौर में

संवेदनाएं सारी मिट गयी

खुश हो रहा आदमी

दूजे को रोता देख कर

रोज कोई न कोई दुशासन,

चीर हरता द्रौपदी का

पुकारने पर द्रौपदियों के

कृष्ण कोई आते नही हैं

अपनी द्धारिका को  छोड़कर।

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