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राजनीति के महारथियों ने राज भाषा के विरुद्ध फिर रचा -एक नया चक्रव्यूह
राजभाषा पहले से ही अग्रेंजी के आगे दीन-हीन दशा में जी रही है। अपने ही देश में उससे सौतेला व्यवहार आजादी के बाद से ही किया जा रहा है। आजादी के इतने सालों में भी भारत की राजभाषा को न तो अंग्रेजी जैसा सम्मान मिल पाया न ही उस जैसा स्थान मिल पाया है।
हमारे माननीय उच्चतमन्यायलय और माननीय उच्चन्यायालयों में उसकी स्थित और भी दयनीय है। वहां तो उसे कोई बर्दाश्त ही नही करना चाहता।इसलिये वहां उसे आज तक अपना स्थान ही नही मिल पाया है, जबकि देश कि सवा सौ अरब की आबादी मे अग्रेंजी से ज्यादा हिन्दी बोलने और समझने वाले लोग रहते हैं। अदालतों का चक्कर लगाने वाली आम जनता जिनका माननीय न्यायालयों पर अटूट विश्वास है। लेकिन वे न्यायिक कार्यवाहियों को समझने मे स्वयं को असमर्थ पाते हैं, और पूरी तरह उन्हें अग्रेंजी भाषा के जानकारों पर निर्भर होने को मजबूर होना पड्ता है। वह खाली इतना जान पाता है कि मैं अपना मुकदमा हार गया या जीत गया क्यों हारा ,क्या कमी थी यह सब वह नही जान पाता।
देश में सिविल सेवाओं की परीक्षा में पाठ्यक्रम बदलने के बाद सौ नम्बर की अनिवार्यता पर इतना हो हल्ला हुआ तब कहीं जाकर सफलता की सम्भावना बनी है, क्योंकि यह आगे जाकर देश की सबसे बडी सेवा पर अपना प्रभाव छोडती और राजभाषा को हेय समझने वाले एक ऐसे वर्ग का निर्माण करती जो लोकसेवक के पद पर तो बैठ जाते लेकिन लोक की भाषा को समझना ही न चाहते। ग्लोबल और विकास की भाषा अंग्रेजी को बताकर देश में कुछ ऐसी परिस्थिति का निर्माण किया जा रहा है, जिसमें एक ऐसा वर्ग पनप रहा है, जो अंग्रेजी बोलता है अंग्रेजी में पढता है, अग्रेंजी में लिखता है, अंग्रेजी में सोचता है और अंग्रेजी मे ही, जीता है। यह वर्ग हिन्दी बोलने वालों को हेय ही नही अल्प शिक्षत समझता है।
राज्य की निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के चयन के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता केवल अंग्रेजी भाषा के जानकारी तक ही, सीमित नहीं है वरन इन परीक्षाओं की सफलता में अंग्रेजी भाषा में प्राप्तांक की विशेष भूमिका होती है।
उत्तर प्रदेश जो एक हिन्दी भाषी राज्य है यहां जो उच्चतर न्यायिक सेवा की परीक्षा माननीय उच्च न्यायालय द्वारा ली जाती है जिसमें हिंन्दी देवनागरी लिपि में उत्तर देने का विकल्प तो है लेकिन प्रश्नपत्र अंग्रेजी में ही होता है। हिंन्दी में उत्तर लिखने वालों का सफलता प्रतिशत और चयनित अभ्यर्थियों के अंग्रेजी भाषा के प्राप्तांक से इन सेवाओं में सफलता के लिए अंग्रेजी भाषा की अहम भूमिका स्पस्ट हो जाती है। इसकी प्रारम्भिक परीक्षा का प्रश्नपत्र भी केवल अंग्रेजी भाषा में ही आता है क्या यह राजभाषा को जानने वालों के साथ अन्याय नही है। जहां विधि की जानकारी आवश्यक है वहां नियुक्त पर अग्रेंजी का पूरी तरह वर्चस्व होना क्या उचित है इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि विधि की पुस्तकें अंग्रेजी में ही है। जिन निचली अदालतों में इनकी नियुक्त होती हैं वहां की आम जनता अंग्रेजी की तुलना में या तो हिन्दी समझती है या अपनी क्षेत्रीय भाषा जानती और समझती है। फिर भी हिंन्दी भाषी अभ्यर्थियों का इस सेवा में चयन अब दिवास्वप्न हो गया ।
दैनिक जागरण के माध्यम से पता चला कि आई आई आइटीयन रुद्र पाठ्क भारतीय अदालतों मे अंग्रेजी का वर्चस्व समाप्त कर राजभाषा की सम्मान के लिए सघर्षरत हैं । वह बधाई के पात्र हैं। ईश्वर करे उन्हे सफलता आवश्य मिले और हमारे न्यायलय जिसमें जन सामान्य का अटूट विश्वास है उनमें आम जनता की भाषा की भागीदारी सुनिश्चित हो सके।
देश की सबसे बडी सेवा आई ए एस की परीक्षा में 100 नम्बर की अंग्रेजी की अनिवार्यता ने भारतीय भाषाओं के शुभचिन्तकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर विरोध का स्वर बुलन्द किया है।कुछ ऐसे ही देश की न्यायिक सेवाओं में भी राजभाषा को लेकर सोचने की आवश्यकता है विशेष तौर पर हिन्दी भाषी प्रदेश की उच्चतर न्यायिक सेवाओं में जहां प्रश्नपत्र भी हिन्दी में नही छपते ।सिविज जज की परीक्षा में प्रश्न पत्र तो हिंन्दी में भी छ्पता है। लेकिन दौ सौ नम्वर की अंग्रेजी की अनिवार्यता यहां भी है, जो सिविल सेवा की तुलना में बहुत अधिक है।
यदि देश की सर्वोच्च सेवा में अंग्रेजी के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लग गया है तो उत्तर प्रदेश जैसे हिंन्दी भाषी राज्य की न्यायिक सेवाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। उत्तर प्रदेश की विधायिका एवं संसद में उत्तर प्रदेश से सांसदगण को सिविल सेवा में अंग्रेजी के अनिवार्यता के विरोध को देखते हुए जन सामान्य से सम्बन्धित निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के चयन सम्बन्धी परीक्षाओं में भी अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने के लिए आवश्यक पहल करने का समय आ गया है।
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